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Writer's pictureYash Goel

बिहार चुनाव और 'कर्म'

निश्चय ही इंसान का भविष्य भूत मे किये गए कर्मों से प्रभावित होता है और बिहार चुनाव के नतीजे इस बात को और पुख्ता करते हैं। देश को (संभवतः) सबसे ज़्यादा आई.ए.एस देने वाले राज्य बिहार मे कोविड -19 काल मे हाल ही मे चुनाव संपन्न हुए हैं और नतीजे (बहुत लोगो के लिए) चौकाने वाले हैं। राजग (NDA) पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता मे वापस आयी है और उम्मीद लगायी जा रही है की श्री नितीश कुमार 7वीं बार मुख्यमंत्री की शपथ लेने वाले है।



विपक्षी पार्टियों की माने तो राज्य मे बदलाव की लहर दौड़ रही थी। उनके मुताबिक बीते 15 वर्षो में बिहार को विकास के नाम पर सिर्फ खोकले वादे और जुमले ही मिले हैं और बिहार के लोगो की बिजली पानी जैसी मूलभूत ज़रूरतें भी नहीं पूरी हो सकीं। तो हार का जिम्मा सीधे तौर पर सबसे कमज़ोर दुश्मन के सर पर डाल दिया गया – इ .वी.एम्.। हमेशा की तरह पराजित हुई पार्टियां इ .वी.एम्. से छेड़छाड़ और लोकतंत्र की हत्या का आरोप लगा रही है। सिवाय बचकाने के ये और कुछ नहीं है और नेताओं को ये बचपना अब छोड़ देना चाहिए। पर क्या राजग की यह जीत सचमुच उसके बीते 15 वर्षो की कामयाबी को दर्शाती है? क्या बीते वर्षो में बिहार में इस कदर विकास हुआ है की जनता ने मंत्र मुग्ध होकर नितीश कुमार जी को वापस ताज पहना दिया? शायद नही।


बिहार के आकड़े देखें तो बिहार आज भी देश का सबसे गरीब राज्य है। स्वस्थ्य सेवायें, शिक्षा व्यवस्था, सड़के, बिजली, पानी, भुखमरी और तमाम सामान्य लोकहित मापदंडो मे बिहार की गिनती देश के सबसे निचले राज्यों मे होती है। तो फिर क्या वजह होगी बदलाव की लेहेर की कमज़ोर पड़ने की? 2 वक्त की रोटी, सर के ऊपर छत, पहनने को कपड़े से ज़्यादा और क्या महत्वपूर्ण होगा बिहार के मतदाताओं के लिए? थोड़ा ज़ोर लगाएं तो कहीं से आवाज़ सुनाई पड़ेगी - बेटियों की सुरक्षा।


राजनैतिक विश्लेषकों ने 2 अहम कारण बताये हैं राजग की जीत के -

पहला, प्रधानमंत्री (या कहें प्रधान प्रचारक) नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता - मोदीजी ने देश के लोगों पर ऐसा जादू कर दिया हैं की सर्दी हो या बरसात, वोट मोदीजी को ही किया जाता है। यह अब कोई राज़ नहीं की अर्थव्यवस्था पटरी से उतर चुकी है और इसका प्राथमिक कारण गलत आर्थिक नीतियां है। फिर भी चुनावी वादे जैसे राम मंदिर एवं अनुच्छेद 370 को पूरा करना और एक प्रभावशाली वक्ता और नेता होना जनता के फैसलों को शायद ज़्यादा प्रभावित करते हैं। परिणाम स्वरूप, मोदीजी जिस तरफ रहते हैं, जीत उसी तरफ की होती है।



Narendra Modi
Picture Courtesy: Reuters

दूसरा, पिछली सरकारों के शासन की यादें और खौफ - बिहार के किसी मध्यम वर्षीय मनुष्य से आप 'लालू राज' बोलेंगे तो बहुत संम्भावना है की सबसे पहले वह आपको 'जंगल राज' बोलके ठीक करेगा। आज भी उन दिनों का खौफ लोगों के दिलों में ज़िंदा है जब शाम को घर से बाहर निकलना किसी महिला के लिए चुनौती नहीं बल्कि मूर्खता होती थी। और घरों मे घुस कर लोगों को अगवा करना या उनकी हत्या करना कोई बड़ी बात नहीं होती थी। पुलिस स्टेशन मे किसी यादव के खिलाफ रपट दर्ज करना खुद के पैर पर कुल्हाड़ी मारना होता था और खुद के साथ कोई दुर्घटना हो जाने पर व्यक्ति स्वयं ही जिम्मेदार होता था। इन अनुभवों से बाहर निकलना आसान नहीं होता और इसी बात की झलक बिहार मे पड़े वोटों के विश्लेषण मे मिलती है। ज्यादातर मीडिया चैनेलो/अखबारों पर यह बात सुनने को मिल रही है की बिहार चुनाव का यह परिणाम बिहार की 'शांत' एवं 'दबी हुई' महिलाओं के आगे आने का ही नतीजा है। अपने घर के पुरुषों से अलग राय रखते हुए उन्होंने अपनी व अपनी बेटियों की सुरक्षा को प्राथमिकता दी। निश्चय ही बिहार में महिलाओं के साथ बदसलूकी की घटनाये ख़त्म नहीं हुई हैं पर जंगल राज के मुकाबले बहुत कम ज़रूर हो गयी है। बिहार की, या कहें की इस देश की, यही तो बदकिस्मती है की यहाँ चुनाव अच्छे और ख़राब में नहीं बल्कि ख़राब और कम ख़राब में होता है।


तेजस्वी यादव बिहार के युवा नेता के रूप मे उभर कर सामने आये हैं और अपनी पार्टी को 75 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनाकर उन्होंने अपनी काबिलियत का परिचय दिया है। और यह आश्चर्य की बात नहीं होगी अगर वह एक दिन सत्ता मे आकर बिहार की कायापलट कर दें। पर उनके पिता के 'कर्म' आज उनके सर पर बुरी छाया बन के मंडरा रहे हैं। कोई यह सवाल कर सकता है की पहले जो हुआ उसमे उनकी तो कोई गलती नहीं थी तो अब उन्हें इसका नतीजा क्यों भुगतना पड़ रहा है? तो इसके जवाब मे यह कहना ठीक होगा की उन्होंने लालू यादव के समय की उन परिस्थितियों को स्वीकारा भी नहीं है। अगर वह पुराने दिनों के 'जंगल राज' को सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर जनता को आश्वस्त करें की उनके नेतृत्व मे उन दिनों की झलक देखने को नहीं मिलेगी तो शायद उन बिना किये पापों के बंधन से मुक्त हो जाएँ और अगले चुनाव के नतीजे कुछ अलग देखने को मिले। पर ऐसा तो शायद सिनेमा में ही होता है।


(Cover picture courtesy - Outlook India)

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